जानें- कानपुर में क्यों मनाई जाती है सात दिन की होली, क्या है गंगा मेला की कहानी

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कानपुर स्पष्ट आवाज़ के संपादक सुशील कुमार जी द्वारा दी गई होली गंगामेला की शुभकामनाएं , साथ ही
कानपुर के ऐतिहासिक गंगामेल की जानकारी भी दी।

शहर में होली के बाद सात दिन तक रंग खेला जाता है और सातवें दिन गंगा मेला का आयोजन होता है। इसके पीछे स्वतंत्रता आंदोलन की कहनी है लेकिन, बहुत कम लोग जानते हैं कि यह परंपरा पहले से थी। इसके विषय में ज्यादा लोग नहीं जानते हैं, हालांकि शहर में गंगा मेला पर होली खेलने की सन् 1942 की कहानी अधिक चर्चित है लेकिन यह परंपरा काफी पुरानी है।

गंगा मेला की कहानी आजादी के आंदोलन में क्रांतिकारियों से जुड़ी है। हटिया को शहर का हृदय था और गल्ला, लोहा और कपड़े का कारोबार होता था। आजादी के आंदोलन में यहां पर क्रंातिकारियों का डेरा रहता था। काफी बड़े व्यापारी गुलाब चंद सेठ होली पर बड़ा आयोजन करते थे। होली पर आए एक अंग्रेज अधिकारी ने रंग खेलने से रोका था तो सेठ ने इनकार कर दिया था। इसपर सेठ को गिरफ्तार किए जाने पर जागेश्वर त्रिवेदी, पं. मुंशीराम शर्मा सोम, रघुबर दयाल, बालकृष्ण शर्मा नवीन, श्यामलाल गुप्त पार्षद, बुद्धूलाल मेहरोत्रा और हामिद खां ने विरोध जताया था। इसपर इन सभी को साजिश रचने के मामले में पकड़कर सरसैया घाट कारागार में डाल दिया गया था।

 

गिरफ्तारी से भड़क गए थे शहरवासी

इस गिरफ्तारी के बाद भड़के शहरवासियों ने आंदोलन शुरू कर दिया था। इससे घबरा अंग्रेज अधिकारियों ने गिरफ्तार लोगों को छोड़ दिया था। अनुराधा नक्षत्र के दिन हुई रिहाई के बाद सभी एक साथ होली खेली थी। हटिया से रंग भरा ठेला निकाला गया और जमकर रंग खेला गया, इसके बाद सरसैया घाट पर मेला लगा था। इसके चलते यह दिन गंगा मेला दिवस में प्रचलित हो गया

पहले से रही है गंगा मेला की परंपरा

आंदोलन की कहनी अधिक चर्चित हुई है लेकिन गंगा मेला की परंपरा पहले से रही है। कानपुर का अस्तित्व होने से पहले जाजमऊ में परगना का क्षेत्र था और यहां पर रंग पंचमी तक होली मनाने का जिक्र इतिहास की किताबों में भी है। कानपुर के इतिहास पर किताब लिख चुके मनोज कपूर की मानें तो रंग पंचमी पर होली मनाने की परंपरा करीब सौ साल पहले की है, यह बात दस्तावेजों में भी है। कानपुर पर इतिहास की पहली किताब दरगारी लाल की 1870 में लिखी किताब तवारीख-ए-कानपुर में सात दिन की होली का जिक्र है।

 

कानपुर में दूर दराज क्षेत्रों से व्यापारी आते थे और बाजार बंद नहीं होता था। होली आने के दौरान फसल तैयार होने के कारण बाजार के कामगारों को घर जाना होता था। इसके चलते व्यापारियों ने छह दिन या सात दिन का अवकाश होली से अनुराधा नक्षत्र तक तय किया था। यह पांच, छह या सात दिन का माना गया। तभी से होली से अनुराधा नक्षत्र तक रंग खेलने की परंपरा चली आ रही है।

 

असफल रहे खत्म करने के प्रयास

सात दिन की होली की परंपरा को खत्म करने के प्रयास हुए लेकिन असफल रहे। पं. गणेश शंकर विद्यार्थी नेएक दिन की होली मनाने को कहा था लेकिन व्यापारियों ने मना कर दिया था। साठ के दशक में भी जिलाधिकारी ने एक दिन की होली के लिए मनाया और मिठाई खाई। लेकिन, अगले दिन फिर होली शुरू हो गई तो प्रशासन भी पीछे हट गया।

 

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